दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में काफ़ी लोगों के मारे जाने की ख़बरें मिलती
रहीं पर आम लोग लाचार थे. हत्यारी भीड़ और राज्य तंत्र के बीच एक अघोषित
तालमेल दिखा. राजनीतिक विपक्ष का एक हिस्सा भी उस भीड़ और तंत्र के साथ
नज़र आया. हाल के वर्षों में भी लोगों के बीच एक तरह की लाचारी है. दादरी
के अख़लाक का लाचार परिवार अपने घर के वरिष्ठ सदस्य का मारा जाना देखता रह
गया था.
बेटे ने बचाने की कोशिश की तो उसे भी खत्म करने की कोशिश की गई. कुछ ही दिनों पहले मोतिहारी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर संजय कुमार को लिंच करने आई उन्मादी भीड़ के सामने कोई क्या कर सकता था? इन भयावह घटनाक्रमों से सबक लीजिए कि अपने समाज को क़ानून के राज, जनतंत्र, बंधुत्व, उदारता, सहिष्णुता और मानवीयता की क्यों ज़रूरत है.
विकासपुरी में हमारे पड़ोसी रहे वह सरदार जी बहुत साधारण परिवार के थे. मेरी तरह किरायेदार के रूप में वहां रहते थे. ट्रक ड्राइवर थे. कुछ कमाने-धमाने के बाद पहली दफ़ा ट्रक खरीदा था. घर के सामने ही सेबों से लदा नया ट्रक कहीं जाने के लिए खड़ा था.
सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के दिखने वाले लंपटों की उन्मादी भीड़ ने उस ट्रक के सेबों में कुछ लूट-पाट की. फिर ट्रक को जला दिया.
उन्मादी भीड़ के आने से कुछ ही देर पहले सरदार जी पीछे के दरवाज़े से कहीं निकल गए और अपनी बीवी और बच्चे को मेरे घर छोड़ गए.
उनकी बीवी की मेरी पत्नी से पटती भी थी. हम लोगों ने उन्हें अपने कमरे में बंद कर दिया और बाहर बेड़े में खड़े हो गए. बाद में लौटने पर सरदार जी ने ट्रक का हाल देखा. रोने लगे. पर परिवार सुरक्षित रहा इसका संतोष भी था. मुझे पूरा यक़ीन है कि आज वह सरदार जी कई ट्रकों और गाड़ियों के मालिक होंगे और उनका वह बेटा भी अपना बिज़नेस संभाल रहा होगा.
सरदार जी के परिवार को अपने कमरे में छिपने की जगह देने के हमारे फ़ैसले से हमारा मकान मालिक बहुत नाराज़ हुआ. उसे लगता था कि दंगाइयों को पता चल गया कि यहां सरदार जी का परिवार छिपा है तो वे घर भी जला सकते हैं. मैंने मकान मालिक को समझाया कि किसी को मालूम नहीं होने वाला है, आप बेवजह बवाल कर रहे हो.
कुछ ही दिनों बाद मैंने वह घर छोड़ दिया और पुष्प विहार की तरफ़ आ गया. यह सब इसलिए बता रहा हूं कि आंख से देखे और कान से सुने घटनाक्रमों का अगर कोई 'नया वर्जन' पेश करने लगेगा तो वह गले से कैसे उतरेगा. बेहतर है, लोग अतीत के काले दिनों पर लीपापोती न करें. सच चाहे जितना क्रूर और काला हो, उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाए.
राहुल गांधी ने जब लंदन में कहा कि सन 84 के दंगों में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी तो मुझे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के वे बयान याद आने लगे जिनमें वह अक्सर कहा करते थे कि दंगों में उनकी सरकार या पार्टी की कोई भूमिका नहीं है.
प्रतिक्रियावश हिंसा हुई और वह 'राजधर्म' का पालन कर रहे हैं. तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन के सख्त तेवर और प्रधानमंत्री वाजपेयी के प्रेषित सुझाव के बावजूद दंगों में झुलसते गुजरात के अंदर सैन्य तैनाती में विलंब किया गया.
तैनाती होने के बाद भी सेना को 'फ़्री हैंड' नहीं दिया गया. सन् 84 और सन् 2002 के बीच इस मामले में अद्भुत साम्य देखा गया. लेकिन दोनों मामलों में नेतृत्व के रुख़ में अंतर भी दिखा.
देर से ही सही, वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में संसद आकर 84 के दंगों के लिए और ख़ासतौर पर सिख समुदाय से बिना शर्त माफ़ी मांगी थी.
सोनिया गांधी ने भी अलग मौके पर माफ़ी मांगी थी. फिर राहुल ने बीते 84 की गुनहगार मानी गई पार्टी का बचाव क्यों किया? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह भाजपा नेताओं की तरह अपनी पार्टी की हर ग़लती और हर गुनाह पर पर्दा डालने की भौंडी शैली अख्तियार कर रहे हैं. बार-बार पुरजोर मांग उठने के बावजूद लालकृष्ण आडवाणी या नरेंद्र मोदी जैसे भाजपा के शीर्ष नेताओं ने सन् 2002 के दंगों या अयोध्या में बाबरी ध्वंस के लिए कभी माफ़ी नहीं मांगी.
माफ़ी छोड़िए, ग़लती का एहसास भी नहीं किया. दोनों पार्टियां दंगे के लिए दोषी ठहराए जाने पर अक्सर एक-दूसरे को कोसती हैं. गुजरात का मामला उठाए जाने पर भाजपा के सिख विरोधी दंगे का सवाल उठाकर कांग्रेस का मुंह बंद करने की कोशिश की जाती है.
बर्बरता और क्रूरता को ख़ारिज करने की जगह पर ये पार्टियां अपने पुराने या नए गुनाहों के बचाव का हथकंडा तलाशती हैं. और दंगों के कभी ख़त्म न होने का सिलसिला चलता रहा है. अब दंगों के रूप भी बदल रहे हैं और लोगों पर एकतरफ़ा हमले और मॉब लिंचिंग होने लगी है.
बेटे ने बचाने की कोशिश की तो उसे भी खत्म करने की कोशिश की गई. कुछ ही दिनों पहले मोतिहारी के असिस्टेंट प्रोफ़ेसर संजय कुमार को लिंच करने आई उन्मादी भीड़ के सामने कोई क्या कर सकता था? इन भयावह घटनाक्रमों से सबक लीजिए कि अपने समाज को क़ानून के राज, जनतंत्र, बंधुत्व, उदारता, सहिष्णुता और मानवीयता की क्यों ज़रूरत है.
विकासपुरी में हमारे पड़ोसी रहे वह सरदार जी बहुत साधारण परिवार के थे. मेरी तरह किरायेदार के रूप में वहां रहते थे. ट्रक ड्राइवर थे. कुछ कमाने-धमाने के बाद पहली दफ़ा ट्रक खरीदा था. घर के सामने ही सेबों से लदा नया ट्रक कहीं जाने के लिए खड़ा था.
सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के दिखने वाले लंपटों की उन्मादी भीड़ ने उस ट्रक के सेबों में कुछ लूट-पाट की. फिर ट्रक को जला दिया.
उन्मादी भीड़ के आने से कुछ ही देर पहले सरदार जी पीछे के दरवाज़े से कहीं निकल गए और अपनी बीवी और बच्चे को मेरे घर छोड़ गए.
उनकी बीवी की मेरी पत्नी से पटती भी थी. हम लोगों ने उन्हें अपने कमरे में बंद कर दिया और बाहर बेड़े में खड़े हो गए. बाद में लौटने पर सरदार जी ने ट्रक का हाल देखा. रोने लगे. पर परिवार सुरक्षित रहा इसका संतोष भी था. मुझे पूरा यक़ीन है कि आज वह सरदार जी कई ट्रकों और गाड़ियों के मालिक होंगे और उनका वह बेटा भी अपना बिज़नेस संभाल रहा होगा.
सरदार जी के परिवार को अपने कमरे में छिपने की जगह देने के हमारे फ़ैसले से हमारा मकान मालिक बहुत नाराज़ हुआ. उसे लगता था कि दंगाइयों को पता चल गया कि यहां सरदार जी का परिवार छिपा है तो वे घर भी जला सकते हैं. मैंने मकान मालिक को समझाया कि किसी को मालूम नहीं होने वाला है, आप बेवजह बवाल कर रहे हो.
कुछ ही दिनों बाद मैंने वह घर छोड़ दिया और पुष्प विहार की तरफ़ आ गया. यह सब इसलिए बता रहा हूं कि आंख से देखे और कान से सुने घटनाक्रमों का अगर कोई 'नया वर्जन' पेश करने लगेगा तो वह गले से कैसे उतरेगा. बेहतर है, लोग अतीत के काले दिनों पर लीपापोती न करें. सच चाहे जितना क्रूर और काला हो, उसे उसी रूप में स्वीकार किया जाए.
राहुल गांधी ने जब लंदन में कहा कि सन 84 के दंगों में कांग्रेस की कोई भूमिका नहीं थी तो मुझे गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के वे बयान याद आने लगे जिनमें वह अक्सर कहा करते थे कि दंगों में उनकी सरकार या पार्टी की कोई भूमिका नहीं है.
प्रतिक्रियावश हिंसा हुई और वह 'राजधर्म' का पालन कर रहे हैं. तत्कालीन राष्ट्रपति केआर नारायणन के सख्त तेवर और प्रधानमंत्री वाजपेयी के प्रेषित सुझाव के बावजूद दंगों में झुलसते गुजरात के अंदर सैन्य तैनाती में विलंब किया गया.
तैनाती होने के बाद भी सेना को 'फ़्री हैंड' नहीं दिया गया. सन् 84 और सन् 2002 के बीच इस मामले में अद्भुत साम्य देखा गया. लेकिन दोनों मामलों में नेतृत्व के रुख़ में अंतर भी दिखा.
देर से ही सही, वरिष्ठ कांग्रेसी नेता और तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में संसद आकर 84 के दंगों के लिए और ख़ासतौर पर सिख समुदाय से बिना शर्त माफ़ी मांगी थी.
सोनिया गांधी ने भी अलग मौके पर माफ़ी मांगी थी. फिर राहुल ने बीते 84 की गुनहगार मानी गई पार्टी का बचाव क्यों किया? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह भाजपा नेताओं की तरह अपनी पार्टी की हर ग़लती और हर गुनाह पर पर्दा डालने की भौंडी शैली अख्तियार कर रहे हैं. बार-बार पुरजोर मांग उठने के बावजूद लालकृष्ण आडवाणी या नरेंद्र मोदी जैसे भाजपा के शीर्ष नेताओं ने सन् 2002 के दंगों या अयोध्या में बाबरी ध्वंस के लिए कभी माफ़ी नहीं मांगी.
माफ़ी छोड़िए, ग़लती का एहसास भी नहीं किया. दोनों पार्टियां दंगे के लिए दोषी ठहराए जाने पर अक्सर एक-दूसरे को कोसती हैं. गुजरात का मामला उठाए जाने पर भाजपा के सिख विरोधी दंगे का सवाल उठाकर कांग्रेस का मुंह बंद करने की कोशिश की जाती है.
बर्बरता और क्रूरता को ख़ारिज करने की जगह पर ये पार्टियां अपने पुराने या नए गुनाहों के बचाव का हथकंडा तलाशती हैं. और दंगों के कभी ख़त्म न होने का सिलसिला चलता रहा है. अब दंगों के रूप भी बदल रहे हैं और लोगों पर एकतरफ़ा हमले और मॉब लिंचिंग होने लगी है.
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