उनकी परेशानी विधानसभा चुनाव को लेकर ज़्यादा है. महाराष्ट्र में इस साल के आख़िर में और बिहार में फ़रवरी, 2020 में चुनाव होना है.
पिछले चुनाव में बीजेपी ने शिवसेना से गठबंधन तोड़कर अकेले चुनाव लड़ा और प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई. ठाकरे को डर है कि बीजेपी को अकेले ही लोकसभा में बहुमत मिल गया तो विधानसभा चुनाव में उनकी सौदेबाज़ी की ताक़त घट जाएगी.
नीतीश कुमार उद्धव से ज़्यादा परेशान हैं. लोकसभा चुनाव में दबाव डालकर वे बीजेपी के बराबर सीटें लेने में कामयाब रहे.
पर विधानसभा चुनाव में दबाव डालने की स्थिति में बीजेपी होगी. नीतीश की केवल यही समस्या नहीं है. दरअसल, रहीम का दोहा, 'रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ों चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े जुड़े गांठ पड़ जाय.' उन पर चरितार्थ हो रहा है.
साल 2017 में एनडीए में वापस आने के बाद उन्हें महसूस हो रहा है कि दोनों के संबंधों में गांठ तो पड़ गई है. दूसरे जब वे बीजेपी का साथ छोड़कर गए थे तो वह अटल-आडवाणी की पार्टी थी.
जब वो लौटे तो बीजेपी मोदी और शाह की पार्टी है. उन्हें लग रहा है कि एनडीए में उनका पहले जैसा रुतबा नहीं है. बीजेपी ने उन्हें चुनाव घोषणा पत्र भी जारी नहीं करने दिया.
प्रधानमंत्री के साथ चुनावी रैली में जब मंच पर खड़े सारे नेता मोदी के साथ भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे तो नीतीश अकेले कुर्सी पर बैठे रहे. वे साथ तो हैं पर सहज महसूस नहीं कर रहे हैं.
अब एक दूसरे परिदृश्य पर विचार करते हैं. मान लीजिए एग्ज़िट पोल ग़लत साबित होते हैं और त्रिशंकु लोकसभा आती है. यह स्थिति नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे के लिए सबसे अच्छी होगी.
ये दोनों नेता दोनों पक्षों से सौदेबाज़ी की स्थिति में होंगे. मौसम विज्ञानी राम विलास पासवान के पांच साल से बंद गले से अचानक आवाज़ निकलने लगेगी. एनडीए के सहयोगी बड़े दलों में केवल अकाली दल ऐसा है जो किसी भी स्थति में बीजेपी के साथ रहेगा.
ऐसा नहीं है कि मोदी और शाह को इसका अंदाज़ा नहीं है. इसीलिए लोकसभा चुनाव के पहले से ही ओड़ीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव और वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी से एक मोटी सहमति बन चुकी है कि वक़्त आने और ज़रूरत पड़ने पर वे साथ रहेंगे.
नवीन पटनायक और जगन मोहन रेड्डी की वैसे भी राष्ट्रीय राजनीति में आने की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है. केसीआर अपनी सीमा जानते हैं और उन्हें मोदी के साथ काम करने में कोई परेशानी नहीं है.
मोदी और शाह का आत्मविश्वास यह संकेत दे रहा है कि वे मन मुताबिक़ नतीजे के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हैं.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक क़िस्सा है.
1991 में लोकसभा चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या के बाद बीजेपी के एक नेता ने कहा कि चुनाव में बीजेपी की स्थिति बेहतर हो जाएगी.
वाजपेयी जी ने बात सुनी और कुछ देर तक आँख बंद किए बैठे रहे. फिर आँख खोली और कहा कि ऐसा है मतदाता कि आँखों में दो बत्तियां होती हैं.
एक लाल और एक हरी. जब वह साथ होता है तो हरी बत्ती नज़र आती है और ख़िलाफ़ हो तो लाल. मुझे तो मतदाता की आँखों में लाल बत्ती नज़र आ रही है. ऐसा लगता है कि मोदी और शाह को एक बार फिर मतदाता की आँख में हरी बत्ती नज़र आ रही है.
शायद यही वजह यह है कि सरकार में सभी विभागों में प्रेजेंटेशन की तैयारी चल रही है. सरकार का अगले 100 दिन का एजेंडा तैयार हो रहा है.
आम बजट की तैयारी शुरू हो चुकी है. बीजेपी को यकीन है कि 23 मई को 2004 नहीं दोहराया जाएगा.
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पिछले चुनाव में बीजेपी ने शिवसेना से गठबंधन तोड़कर अकेले चुनाव लड़ा और प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी बन गई. ठाकरे को डर है कि बीजेपी को अकेले ही लोकसभा में बहुमत मिल गया तो विधानसभा चुनाव में उनकी सौदेबाज़ी की ताक़त घट जाएगी.
नीतीश कुमार उद्धव से ज़्यादा परेशान हैं. लोकसभा चुनाव में दबाव डालकर वे बीजेपी के बराबर सीटें लेने में कामयाब रहे.
पर विधानसभा चुनाव में दबाव डालने की स्थिति में बीजेपी होगी. नीतीश की केवल यही समस्या नहीं है. दरअसल, रहीम का दोहा, 'रहिमन धागा प्रेम का मत तोड़ों चटकाय, टूटे से फिर ना जुड़े जुड़े गांठ पड़ जाय.' उन पर चरितार्थ हो रहा है.
साल 2017 में एनडीए में वापस आने के बाद उन्हें महसूस हो रहा है कि दोनों के संबंधों में गांठ तो पड़ गई है. दूसरे जब वे बीजेपी का साथ छोड़कर गए थे तो वह अटल-आडवाणी की पार्टी थी.
जब वो लौटे तो बीजेपी मोदी और शाह की पार्टी है. उन्हें लग रहा है कि एनडीए में उनका पहले जैसा रुतबा नहीं है. बीजेपी ने उन्हें चुनाव घोषणा पत्र भी जारी नहीं करने दिया.
प्रधानमंत्री के साथ चुनावी रैली में जब मंच पर खड़े सारे नेता मोदी के साथ भारत माता की जय के नारे लगा रहे थे तो नीतीश अकेले कुर्सी पर बैठे रहे. वे साथ तो हैं पर सहज महसूस नहीं कर रहे हैं.
अब एक दूसरे परिदृश्य पर विचार करते हैं. मान लीजिए एग्ज़िट पोल ग़लत साबित होते हैं और त्रिशंकु लोकसभा आती है. यह स्थिति नीतीश कुमार और उद्धव ठाकरे के लिए सबसे अच्छी होगी.
ये दोनों नेता दोनों पक्षों से सौदेबाज़ी की स्थिति में होंगे. मौसम विज्ञानी राम विलास पासवान के पांच साल से बंद गले से अचानक आवाज़ निकलने लगेगी. एनडीए के सहयोगी बड़े दलों में केवल अकाली दल ऐसा है जो किसी भी स्थति में बीजेपी के साथ रहेगा.
ऐसा नहीं है कि मोदी और शाह को इसका अंदाज़ा नहीं है. इसीलिए लोकसभा चुनाव के पहले से ही ओड़ीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक, तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव और वाईएसआर कांग्रेस के जगन मोहन रेड्डी से एक मोटी सहमति बन चुकी है कि वक़्त आने और ज़रूरत पड़ने पर वे साथ रहेंगे.
नवीन पटनायक और जगन मोहन रेड्डी की वैसे भी राष्ट्रीय राजनीति में आने की कोई महत्वाकांक्षा नहीं है. केसीआर अपनी सीमा जानते हैं और उन्हें मोदी के साथ काम करने में कोई परेशानी नहीं है.
मोदी और शाह का आत्मविश्वास यह संकेत दे रहा है कि वे मन मुताबिक़ नतीजे के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हैं.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का एक क़िस्सा है.
1991 में लोकसभा चुनाव के दौरान राजीव गांधी की हत्या के बाद बीजेपी के एक नेता ने कहा कि चुनाव में बीजेपी की स्थिति बेहतर हो जाएगी.
वाजपेयी जी ने बात सुनी और कुछ देर तक आँख बंद किए बैठे रहे. फिर आँख खोली और कहा कि ऐसा है मतदाता कि आँखों में दो बत्तियां होती हैं.
एक लाल और एक हरी. जब वह साथ होता है तो हरी बत्ती नज़र आती है और ख़िलाफ़ हो तो लाल. मुझे तो मतदाता की आँखों में लाल बत्ती नज़र आ रही है. ऐसा लगता है कि मोदी और शाह को एक बार फिर मतदाता की आँख में हरी बत्ती नज़र आ रही है.
शायद यही वजह यह है कि सरकार में सभी विभागों में प्रेजेंटेशन की तैयारी चल रही है. सरकार का अगले 100 दिन का एजेंडा तैयार हो रहा है.
आम बजट की तैयारी शुरू हो चुकी है. बीजेपी को यकीन है कि 23 मई को 2004 नहीं दोहराया जाएगा.
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